मनाचे श्लोक गणाधीश जो इश सर्वा गुणांचा | मुळारंभ आरंभ तो निर्गुणाचा | नमू शारदा मूळ चत्वार वाचा | गभू पंथ आनंत या राघवाचा || १ || मन सज्जना भक्तिपंथेची जावे | तरी श्रीहरी पाविजेतो स्वभावे | जनी निंद्य ते सर्व सोडुनी द्यावे | जनी वंद्य ते सर्व भावे करावे || २ || प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा | पुढे वैखरी राम आधी वदावा | सदाचार हा थोर, सांडू नये तो | जनी तोचि तो मानवी धन्य होतो || ३ || मना , वासना दृष्ट कामा न येरे | मना , सर्वथा , पाप - बुद्धी नको रे | मना धर्मता , नीती , सोडू नको हो | मना , अंतरी सार विचार राहो || ४ || मना , पापसंकल्प सोडुनी द्यावा | मना , सत्य संकल्प जीवी धरावा | मना कल्पना ते नको विषयाची | विकारे घड़े हो जनी सर्व ची ची || ५ || नको रे मना, क्रोध हा खेदकारी | नको रे मना, काम नाना विकारी | नको रे मना सर्वदा अंगिकारु | नको रे मना, मत्सरू दंभ भारू || ६ || मना, श्रेष्ठ धारिष्ट जीवी धरावे | मना , बोलणे नीच सोशीत जावे | स्वये सर्वदा नम्र वाचे वदावे | मना , सर्व लोकांसी रे नीववावे || ७ || तनू त्यागिता कीर्ति मागे उरावी | मना सज्जना हेंची क्रिया धरावी | मना चंदनाचे परी त्वां झिजावे | परी अंतरी सज्जना नीववावे || ८ || नको रे मना द्रव्य तें पुढीलांचे | अती स्वार्थ बुद्धी न रे पाप साचे | घड़े भोगणे पाप ते कर्म खोटे | न होतां मनासारिखें दु:ख मोठे || ९ || सदा सर्वदा प्रीति रामी धरावी | दु:खाची स्वयें सांडी जीवी करावी | देह दु:ख ते सुख मानीत जावे | विवेक सदा सस्वरूपी मरावे || १० || जगी सर्व सुखी असा कोण आहे ? | विचारे मना, तूचि शोधुनी पाहे | मना त्वांचिं रे पूर्वसंचीत केले | तयासारिखे भोगणे प्राप्त झाले || ११ || मना, मानसी दु:ख आणू नको रे | मना, सर्वथा शोक चिंता , नको रे || विवेकें देह बुद्धी सोडुनी द्यावी | विदेहीपणे मुक्ति भोगीत जावी || १२ || मना, सांग पां रावणा काय झालें | अकस्मात् ते राज्य सर्वे बुडाले || म्हणोनी कुड़ी वासना सांडी वेगी | बळे लागला काळ हा पठिलागी || १३ || जिवा कर्मयोगे जनी जन्म झाला | परी शेवटी काळमूखीं निमाला || महा थोर ते मृत्युपंथेची गेले | कितीएक ते जन्मले आणि मेले || १४ || मना, पाहता सत्य हे मृत्युमुखी | जिता बोलती सर्व ही जीव मी मी || चिरंजीव् हे सर्व ही मानिताती | आकस्मात सांडूनिया सर्व जाती || १५ || मरे एक ,त्याचा दूजा शोक वाहे| अकस्मात् तो ही पुढें जात आहे || पुरेना जनी लोभ रे , क्षोभ त्यातें | म्हणोनी जनी मागुता जन्म घेतें || || १६ || मनी मानव व्यर्थ चिंता वाहाते | अकस्मात् होणार होऊनि जाते | घड़े भोगणे सर्वही कर्मयोगे | मतिमंद ते खेद मनी वियोगे || १७ || मना, राघवेवीण आशा नको रे | मना, मानवाची नको कीर्ति तूं रे || जया वर्णिती वेदशास्त्रे पुराणे | तयां वर्णिता सर्वही श्लाघ्यवाणे || १८ || मना, सर्वथा सत्य सान्डू नको रे || मना, सर्वथा मिथ्य मांडू नको रे || मना , सत्य ते सत्य वाचे वदावें | मना, मिथ्य तें मिथ्य सोडुनी ध्यावे || १९ || बहु हिंपुटी होइजे मायपोटी | नको रे मना यातना तेचि मोठी | निरोगे पचे कोंड़ीले गर्भवासी |अधोमूख रे दु;ख त्या बाळकासी || २० || मना , वासना चुकवी येरझारा | मना , कामना सांडी रे द्रव्यदारा || मना यातना थोर हे गर्भवासी | मना, कामना सांडी रे द्रव्यदारा || मना यातना थोर हे गर्भवासी | मना सज्जना , भेटवी राघवासी || २१ || मना सज्जना, हीत माझें करावे | रघुनायका दृढ़ चित्ती धरावे || महाराज तो स्वामी वायु सुताचा | जना उद्धरी नाथ लोकत्रयाचा || २२ || न बोले मना, राघवेवीण कांही | जनी वाउगे बोलता सूख नाही | घडीने घडी काळ आयुष्य नेतो | देहांती तुला कोण सोडू पहातो || २३ || रघुनायकावीण वाया शिणावे | जनासारिखे व्यर्थ कां वोसणावे || सदा सर्वदा नाम वाचे वसो दें | अहंता मनी पापिणी ते नसों दे || २४ || मना, वीट मानूं नको बोलण्याचा | पुढे मागुता राम जोडेल कैचा | सुखाची घडी लोटता सुख आहे | पुढें सर्व जाईल कांही न राहे || २५ || देहरक्षणाकारणें यत्न केला | परी शेवटी काळ घेउनि गेला | करी रे मना, भक्ति या राघवाची | पुढे अंतरि सोडी चिंता भवाची || २६ || भवाच्या भये काय भीतोस लंडी | वरी रे मना , धीर धाकास सांडी | रघुनायका सारिखा स्वामी शीरी | नुपेक्षि कदा कोपल्या दंडाधारी || २७ || दीनानाथ हा राम कोदंडधारी | पुढे देखतां, काळ पोठी थरारी | मना, वाक्य नेमस्त हे सत्य मानी | नुपेक्षि कदा राम दासाभिमानी || २८ || पदी राघवाचे सदा ब्रीज गाजे | बळे भक्तरीपुशिरी काबिं वाजे | पूरी वाहिली सर्व जेणे विमानी | नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी || २९ || समर्थाचिया सेवका वक्र पाहे | असा सर्व भूमंडळी कोण आहे || जयाची लिला वर्णिती लोक तीन्ही | नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी || ३० || महासंकटी सोडिला देव जेणे | प्रतापे बले आगला सर्व-गुणे | जयाते स्मरे शैल्यजा शूलपाणी | नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी || ३१ || अहिल्या शिLa राघवें मुक्त केली | पदी लागता दिव्य होऊनि गेली | जया वर्णिता शीणली वेदवाणी | नुपेक्षी कदा राम दासभिमानी || ३२ ||वसे मेरु मांदार हे स्रुष्टिलीला | शशी सूर्य , तारांगणे मेघमाला || चिरंजीव केले जनी दास दोन्ही | नुपेक्षी कदा राम दासा भिमानी || 33 || ऊपेक्षा कधी रामरुपी असेना | जिवा मानवा निश्चयो तो वसेना | शिरी भार वाहेन, बोले पुराणी | नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी || ३४ || असे हो जया अंतरी भाव जैसा | वसे हो तया अंतरी देव तैसा | अनन्यास रक्षितसे चापपाणी | नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी || ३५ || सदा सर्वदा देव सन्निध आहे | कृपाळूपणे अल्प धारिष्ट पाहे | सुखानंद आनंद-कैवल्य-दानी | नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी || ३६ || सदा चक्रवाकासी मार्तंड जैसा | उडी घालितो संकटी स्वामी तैसा | हरी-भक्तीचा धाव गाजे निशाणी | नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी || ३७ || मना प्रार्थना तुजला येक़ आहे | रघुराज , थकित होऊनि पाहे || अवज्ञा कदा ही यदर्थी न कीजे | मना सज्जना , राघवी वस्ति कीजे || ३८ || जया वर्णिती वेद , शास्त्रे , पुराणे | जयाचेनि योगे समाधान ब़ाणे | तयालागि हे सर्व चांचल्य दीजे | मना सज्जना , राघवी वस्ति कीजे || ३९ || मना , पाविजे सर्व ही सुख जेथे | अती आदरे ठेविले लक्ष तेथे | विवेकें कुड़ी कल्पना पालटीजे | मना सज्जना , राघवी वस्ति कीजे || ४० || बहु हिंडता सुख होणार नाही | शिणावे परी नातुडे हीत कांही | विचारे बरे अंतरा बोधवीजे | मजा सज्जना , राघवी वस्ति कीजे || ४१ || बहुतापरी हेंची आता धरावे | रघुनायका आपुलेंसे करावे | दीनानाथ हे तोड़री ब्रीद गाजे | मना सज्जना , राघवी वस्ति कीजे || ४२ || मना सज्जना, येक़ जीवी धरावे | जनी आपले हीत तुंवा करावे | रघुनायकाविण बोलो नको हो | सदा मानसी तो नीजध्यास राहो || ४३ || मना रे, जनी मौनमुद्रा धरावी | कथा आदरे, राघवाची करावी | नसे राम ते धाम सोडुनी द्यावे | सुखालागी आरण्य सेवीत जावे || ४४ || जयाचेनि संगे समाधान भंगे | अहंता अकस्मात् येऊनि लागे | तये संगतीची जनी कोण गोडी | नये संगतीने मनी राम सोडी || ४५ || मना , जे घडी राघवेंविण गेली | जनी आपली ते तुंवा हानी केली | रघुनायाकावीण तो शीण आहे | जनी दक्ष तो लक्ष लावुनी पाहे || ४६ | मनी लोचनी श्रीहरी तोचि पाहे | जनी जाणता भक्त होऊनि राहे | गुणी प्रीति राखे , क्रमू साधनाचा | जनी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा || ४७ ||सदा देवाकाजी झिजे देह ज्याचा | सदा रामनामे वदे नित्य वाचा | स्वधर्मेचि चाले सदा, उत्तमाचा | जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा || ४८ || सदा बोलण्यासारिखे चालताहे | अनेकी सदा एक देवासी पाहे | सगूणी भजे , लेश नाही भ्रमाचा | जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा || ४९ || नसे अंतरी, काम नाना विकारी | उदासीन जो , तापसी, ब्रम्हचारी | निवाला मनी , लेश नाही तमाचा | जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा || ५० || मदे मत्सरे सांडिला | स्वार्थबुद्धी | प्रपंचीक नाही जयाते उपाधी | सदा बोलणे नम्र वाचा सुवाचा | जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा || ५१ || क्रमी वेळ जो तत्त्वचिंतानुवादे | न लिंपे कदा दंभ वाढे विवादे | करी सुख संवाद जो ऊगमाचा | जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा || 52 || सदा आर्जवी , प्रिय जो सर्व - लोकी | सदा सर्वदा सत्यवादी विवेकी | न बोले कदा मिथ्यवाचा त्रिवाचा | जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा || ५३ || सदा सेवी आरण्य तारुण्यकाली | मिलेना कदा कल्पनेचेन मेळी | चलेना मनी निश्चयो दृढ़ ज्याचा | जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा || ५४ || नसे अंतरी नष्ट आशा दुराशा | वसे अंतरी प्रेमपाशा पिपाशा | ऋणी देव हा , भक्तिभावे जंयाचा | जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा || ५५ || दिनाचा दयालू मनाचा मावाळू | स्नेहाळू कृपाळू जगी दासपाळू | तया अंतरी क्रोध संताप कैसा | जगी धन्य तो दास सर्वोत्तमाचा || ५६ || जगी होइजे धन्य रामनामे | क्रिया भक्ति उपासना नित्य - नेमे | उदासीनता तत्वता सार आहे | सदा सर्वदा मोकळी वृत्ती राहे || ५७ || नको वासना विषयी वृत्तिरूपे | पदार्थी जड़े कामना पूर्वपापे | सदा राम नि:काम चिंतीत जावा | मना , कल्पनालेश तोही नसावा || ५८ || मना कल्पना कल्पिता कल्पकोटि | नव्हे रे नव्हे सर्वथा रामभेटी| मनी कामना, राम नाही , जयाला | अती आदरे प्राति नाही तयाला || ५९ || मना राम कल्पतरु कामधेनू | निधी-सार, चिंतामणी काय वानू| जयाचेनि योगे घड़े सर्व सत्ता | तया साम्यता कायसी कोण आता || ६० || उभा कल्पवृक्षातळी दु:ख वाहे | तया अंतरी सर्वदा तोचि आहे | जनी सज्जनी वाद हा वाढवावा | पुढे मागुता शोक जीवी धरावा || ६१ || नीजध्यास तो सर्व तुटोनी गेला | बले अंतरी शोक संताप ठेला || सुखानंद आनंद भेद बुडाला | मनी निश्चयो सर्व खेदे उडाला || ६२ || घरी कामधेनु पुढे ताक मागे | हरी बोध सांडूनि विवाद लागे | करी सार चिंतामणी , काचखंडे | तया मागता , देत आहे उदंडे || ६३ || अती मूढ़ त्या दृढ़ बुद्धी असेना | अती काम त्या राम चित्ती वसेना | अती लोभ त्या क्षोभ होईल जाणा | अती विषयी सर्वदा दैन्य -वाणा || ६४ || नको दैन्यवाणे जिणे भक्तिउणे | अती मुर्ख त्या सर्वदा दु:ख दुणे | धरी रे मना , आदरे प्रीति रामी | नको वासना , हेमधामी विरामी || ६५ || नव्हे सार संसार हा , घोर आहे | मना सज्जना , सत्य शोधुनी पाहे | जनी विष खाता पुढे सुख कैचे | करी रे मना , ध्यान या राघवाचे || ६६ || घनश्याम हा राम लावण्यरूपी | महा धीर गंभीर पूर्णप्रतापी | करी संकटी सेवाकाचा कुढावा | प्रभाते मनी राम , चिंतीत जावा || ६७ || बळे आगळा राम कोदंडधारी | महाकाळ विक्राळ तो ही थरारी | पुढे मानवा किंकरा कोण केवा | प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा || ६८ || सुखानंदकारी निवारी भयाते | जनी भक्तिभावे भजावे तयाते | विवेक त्यजावा अनाचार हेवा | प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा || ६९ || सदा रामनामे वदा पूर्णकामे | कदा बाधीजेना वदा नित्य नेमे | मदालस्य हा सर्व सोडून द्यावा | प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा || ७० || जयाचेनि नामे महादोष जाती | जयाचेनि नामे गती पावीजेती | जयाचेनि नामे घड़े पुण्यठेवा | प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा || ७१ || न वेचे कदा ग्रंथिचे अर्थ कांही | मुखे नाम उच्चारिता कष्ट नाही | महाघोर संसार शत्रु जीणावा | प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा || ७२ || देहदंडणेचे महा दु:ख आहे | महा दु:ख ते नाम घेता न राहे | सदाशिव चिंतीतसे देवदेवा | प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा || ७३ || बहुतापरी संकटे साधनाची | व्रते दान उद्यापने ती धनाची | दिनाचा दयाळू मनी आठवावा | प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा || ७४ || समस्तांमधे सार साचार आहे | कळेना तरी , सर्व शोधून पाहे | जिवा संशयो वाउगा तो तजावा | प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा || ७५ || नव्हे कर्म ना धर्मं ना योग कांही | नव्हे भोग ना त्याग ना सांग पाही | म्हणे दास , विश्वास , नमी धरावा | प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा || ७६ || करी काम नि:काम या राघवाचे | करी रूप स्वरुप सर्वा जिवाचे | करी छेद निर्द्वंद हे गुण गाता | हरीकीर्तनी वृत्ती विश्वास होता || ७७ || अहो ज्या नरा रामविश्वास नाही | तया पामरा बाधिजे सर्व कांही | महाराज तो स्वामी कैवल्यदाता | वृथा वाहणे देह संसार चिंता || ७८ || मना , पावना भावना राघवाची | धरी अंतरी , सोडी चिंता भवाची | भवाची जिवा मानवा भूलि ठेली | नसे वस्तूची धारणा व्यर्थ गेली || ७९ | घरा श्रीवरा , त्या हरा अंतराते | तरा दुस्तरा त्या परा सागराते || सरा विसरा त्या भरादुर्भराते | कार नाकरा , त्या खरा मत्सराते || ८० || मना , मत्सरे नाम सांडू नको हो | अती आदरे हा नीजध्यास राहो | समस्तामधे नाम हे सार आहे | दूजी तुळणा तुळितां हो न साहे || ८१ || बहु नाम या रामनामी तुळेना | अभाग्या नरा पामरा हे कळेना | विषा औषधा घेतले पार्वतीशे | जिवा मानवा किंकरा कोण पुसे || ८२ || जेणे जाळिला काम तो राम घ्यातो | उमेसी अती आदरे गुण गातो | चाहू ज्ञान वैराग्य सामर्थ जेयें | परी अंतरी राम विश्वास तेथें || ८३ || विठाने शिरी पाहिला देवराणा | तया अंतरी घ्यास रे , त्यासि नेणा || निवाला स्वयें तापसी चंद्रमौळी | जिवा सोडवी राम हा अंतकाली || ८४ || भजा राम विश्रामयोगेश्वराचा | जपू नेमिला नेम गौरीहराचा | स्वये निववी तापसी चंद्रमौळी | तुम्हा सोडावी राम अंतकाळी || ८५ || मुखी राम विश्राम तेथेची आहे | सदानंद आनंद सेवुनी राहे | तयावीण तो शीण संदेह्कारी | निजधाम हें नाम शोकापहारी || ८६ || मुखी राम त्या काम बांधू शकेना | गुणे इष्ट धारिष्ट त्याचे चुकेना | हरीभक्त तो शक्त कामास मारी | जगी धन्य तो मारुती ब्रम्हाचारी || ८७ || बहु चांगले नाम या राघवाचे | अती साजिरे स्वल्प सोपे फुकाचें | करा निर्मळ घेता भवाचें | जिवा मानवां हेंचि कैवल्य सांचे || ८८ || जनी भोजनी , नाम वाचे वदावे | अती आदरें गद्य -घोषे म्हणावे | हरी चिंतने अन्न सेवीत जावे | तरी श्रीहरी पाविजे तो स्वभावे || ८९ || नये राम वाणी तया थोर हानी | जनी व्यर्थ प्राणी , नया नाम काणी | हरी - नाम हें वेदशास्त्री, पुराणी | बहू आगळे , बोलिली व्यासवाणी || ९० || नको वीट मानू रघुनायकाचा | अती आदरे बोलिजे राम वाचा | न वेचे मुखी सांपडे रे फुकाचा | करी घोष त्वा जनकीवल्लभांचा || ९१ || अती आदरें सर्व ही नामघोष | गिरिकंदरे जाईजे दुरी दोषे | तिष्टतु तोषला नामतोषे | विशेषे हरा मानसी रामपीसे || ९२ || जगी पाहतां देव हा अन्नदाता | तया लागली तत्वता सार चिंता | तयाचे मुखीं नाम घेता फुकाचें | मना सांग पां रे तुझे काय वेचे || ९३ || तिन्ही लोक जाळू शके कोप येता | निवाला हरु तो मुखे नाम घेता | जपें आदरे पार्वति विश्वमाता | म्हणोनी म्हणा तेंचि हें नाम आता || ९४ || अजामेL पापी वादे पुत्रकामें | तया मुक्ति नारायणाचेनि नामे | शुकाकारणे कुंटणी राम वाणी | मुखे बोलतां ख्याति जाली पुराणीं || ९५ || महा भक्त प्रल्हाद हा दैत्यकूळी | जपे रामनामावळी नित्यकाळी| पिता पापरूपी तया देखावेना | जनी दैत्य तो नाम मुखे म्हणेना || ९६ || मुखी नाम नाहीं तया मुक्ति कैची | अहंतागुणे यातना ते फुकाची || पुढे अंत येईल तो दैन्यवाणा | म्हणोनी म्हणा रे म्हणा देवराणा || ९७ || हरिनाम नेमस्त पाषाण तारी | बहू तारिले मानवदेहांधारी || तया रामनामी सदा जो विकल्पी | वदेना कदा जीव तो पापरूपी || ९८ || जगी धन्य वाराणसी पुण्यरासी | तयेमाजी जातां गति पूर्वजांसी | मुखे रामनामावळी नित्यकाळी || जिवा हीत सांग सदा चंद्रमौळी || ९९ || येथासांग रे कर्म तेंही घड़ेना | घड़े कर्म तें पुण्य गांठी पडेना | दया पाहतां सर्व भूती असेना | फुकाचे मुखी नाम तेंही वसेना || १०० || जया नावडे नाम त्या यम जाची | विकल्पे उठे तर्क त्या नर्क ची ची | म्हणोनी अति आदरे नाम घ्यावे || मुखे बोलता दोष जाती स्वभावे || १ || अती लिनता सर्वभावे स्वभावे | जना सज्जनालागि संतोषवावे || देहे कारणी सर्व लावीत जावे | सगुणी अती आदरेसी भजावे || २ || हरी कीर्तने प्रीती रामी धारावी | देहेबुद्धी नीरूपणी वीसरावी | परद्रव्य आणीक कांता परावी | यदर्थी मना सांडी जीवी करावी || ३ || क्रियेवीण नानापरी बोलिजेते | परी चीत दुश्र्चित ते लाजवीते | मना कल्पना धीट सेराट धावे | तया मानवा देव कैसेनी पावे || ४ || विवेके क्रिया आपुली पालटावी | आती आदरे शुद्ध क्रिया धरावी | जनी बोलण्यासारिखे चाल बापा | मना कल्पना सोडि संसारतापा || ५ || बरी स्नानसंध्या कारी येक़निष्ठा | विवेके मना आवरी स्थानभ्रष्टा || दया सर्व भूती जया मानवाला | सदा प्रेमाळू भक्तिभावे निवाला || ६ || मना कोपआरोपणा ते नसावी | मना बुद्धी हे साधुसंगी वसावी | मना नष्ट चांडाळ तो संग त्यागी | मना होई रे मोक्षभागी विभागी || ७ || सदा सर्वादा सज्जनाचेनी योगे | क्रिया पालटे भक्तिभावार्थ लागे | क्रियेवीण वाचालता ते निवारी | तुटे वाद संवाद तो हीतकारी || ८ || जनीं वाद वेवाद सोडुनि द्यावा | जनी सुखसंवाद सूखे करावा || जगीं तोंचि तो शोक संतापहारी | तूटे वाद संवाद तो हीतकरी || ९ || तूटे वाद संवाद त्याते म्हणावे | विवेके अहंभाव याते जिणावे | अहंतागुणे वाद नाना विकारी | तूटे वाद संवाद तो हीतकरी || ११० || हिताकारणे बोलणे सत्य आहे | हिताकारणे सर्व शोधून पाहे | हिताकारणे बंड पाषांडवारी | तूटे वाद संवाद तो हितकारी || ११ || जनी सांगता एकता जन्म गेला | परी वाद वेवाद तसेचि ठेला | उठे संशयो वाद हा दंभधारी | तूटे वाद संवाद तो हीतकरी || १२ || जनी हीत पंडीत सांडीत गेले | अहंतागुणे ब्रम्हराक्षस जाले | तयांहुनि व्युत्पन्न तो कोण आहे | मना सर्व जाणीव सांडूनि राहे || १३ || फुकाचे मुखी बोलतां काय वेधे | दिसेंदीस अभ्यंतरी गर्व सांचे | क्रियेवीण वाचाळता व्यर्थ आहे | विचारे तुझा तूं चि शोधुनी पाहें || १४ || तूटे वाद संवाद तेथे करावा | विवेके अहंभाव हा पालटावा | जनीं बोलण्यासारखे आचरावे | क्रियापालटे भक्तिपंथेची जावे || १५ || बहू श्रापिता कष्टला अंबऋषी | तयाचे स्वये श्रीहरी जन्म सोशी | दिल्हा क्षीरसिंधू तया ऊपमानी || नुपेक्षी कदा देव भक्तभिमानी || १६ || धुरु लेकरु बापूढे दैन्यवाणें | कृपा भकिता दीधली भेटी जेण | चिरंजीव टारांगणी प्रेमखाणी | नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी || १७ || गजेंदु महा संकटी वाट पाहे | तयाकारणे श्रीहरी धांवताहे || उडी घातली जाहला जीवदानी | नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी || १८ || अजामेळ पापी तया अंत आला | कृपाळूपणे तो जनी मुक्त केला | अनाथासि आधार हा चक्रपाणी | नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी || १९ || विधिकारणे जाहला मच्छ वेगी | धरी कुर्मरुपे धरा पृष्ठीभागी || जना रक्षणा कारणे नींच योनी | नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी || १२० || महा भक्त प्रल्हाद हा कष्टवाला | म्हणोनी तयाकारणे सिंह जाला | न ये जाल बीषाळ संन्नीध कोणी | नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी || २१ ||कृपा भाकिता जाहला वज्रपाणी | तयाकारणे वामन चक्रपाणी || द्विजाकारणे भार्गव चापपाणी | नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी || २२ || अहल्ये सतिलागिं आरण्यपंथे | कुढाब़ा पुढे देव बंदी तयातें | बले सोडिला घाव झाली निशाणी | नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी || २३ || तये द्रौपदीकारणे लागवेगे | सत्वरे धांवला सर्व सांडूनि मागे | कलीलागि झाला असे बौद्ध मौनी | नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी || २४ || अनाथा दिनाकारणें जन्मताहे | कलंकी पुढे देव होणार आहे| तथा वर्णिता शिणली वेदवाणी | नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी || २५ || जनाकारणें देव लीलावतारी | बहुतांपरी आदरे वेषधारी | तया नेणती ते जन पापरूपी | दुरात्मे महा नष्ट चांडाल पापी || २६ || जगी धन्य तो रामसूखे निवाला | कथा ऐकता सर्व तल्लीन झाला | देहेभावना रामबोधे उडाली | मनोवासना रामरूपी बुडाला || २७ || मना वासना वासुदेवी वसो दे | मना कामना कामसंगी नसों दे | माला कल्पना वाऊगी ते न कीजे | मना सज्जना सज्जनी वस्ति कीजे || २८ || गतिकारणे संगती सज्जनाची | मति पालटे सुमती दुर्जनाची | रतिनायिकेचा पति नष्ट आहे | म्हणोनी मनातीत होऊनि राहे || २९ || मना अल्प संकल्प तो ही नसावा | मना सत्य संकल्प चित्ती वसावा | जनी जल्पविकल्पतोही त्यजावा | रमाकांत येकांतकाळी भजावा || १३० || भजाया जनी पाहता राम येकु | करी बाण ये कु मुखी शब्द येकु | क्रिया पाहता ऊद्धरे सर्व लोकु | धरा जानकीनायाकांचा विवेकु || ३१ || विचारुनी बोले निवंचुनी चाले | तयाचेनी संतप्त ते ही निवाले | बरें शोधिल्यावीण बोलो नको हो | जनी चालणे शुद्ध नेमस्त राहो || ३२ || हरीभक्त विरक्त विज्ञानरासी | जेणे मानसी स्थापिले निश्चयासी || तया दर्शने स्पर्शने पुण्य जोड़े | तया भाषणे नष्ट संदेह मोड़े || ३३ || नसे गर्व अंगी सदा वीतरागी | क्षमा शांति भोगी दया दक्ष योगी | नसे लोभ ना क्षोभ ना दैन्यवाणा | इही लक्षणी जाणिजे योगीराणा || ३४ || धरी रे मना संगती सज्जनाची | जेणे वृत्ती हे पालटे दुर्जनांची | बले भाव सद्बुद्धि सन्मार्ग लागे | महाक्रूर तो काळ विक्राल भंगे || ३५ || भये व्यापिले सर्व ब्रम्हांड आहे | भयातीत ते संत आनंत पाहे | जया पाहता द्वैत कांही दिसेना | भयो मानसी सर्वथा ही असेना || ३६ || जिंवा श्रेष्ठ ते स्पष्ट सांगोनी गेले | परी जीव अज्ञान तैसेचि ठेले | देहेबुद्धिचे कर्म खोटे टळेना || जुने ठेवणे मीपणे आकळेना || ३७ || भ्रमे नाढळे वित्त ते गुप्त जाले | जिवा जन्मदारिद्र्य टाकुनि आले | देहेबुद्धिचा निश्चयो ज्या टळेना | जुने ठेवणे मीपणे आकळेना || ३८ || पुढे पाहता सर्वही कोंदलेसे | आभाग्यास हे दृश्य पाषाण भासे | अभावे कदा पुण्य गांठी पडेना | जुने ठेवणे मीपणे आकळेना || ३९ || जयाचे तया चुकले प्राप्त नाही | गुणे गोविले जाहले दु:ख देही | गुणा वेगळी वृत्ती तेही वळेना | जुने ठेवणे मीपणे आकळेना || १४० || म्हणे दास सायास त्याचे करावे | जनी जाणता पाय त्याचे धरावे | गुरुअंजनेवीण तें आकळेना | जुने ठेवणे मीपणे तें कळेना || ४१ || कळेना कळेना कळेना ढळेना | ढळे नाढळे संशयोही ढळेना | गळेना गळेना अहंता गळेना | बळे आकळेना मिळेना मिळेना || ४२ || अविद्यागुणे मानवा ऊमजेना | भ्रमे चुकले हीत तें आकळेना | परीक्षेविणे बांधिले दृढ़ नाणे | परी सत्य मिथ्या असें कोण जाणे || ४३ || जगी पाहता साच ते काय आहे | अती आदरे सत्य शोधुनी पाहे | पुढे पाहता पाहता देव जोड़े | भ्रम भ्रान्ति अज्ञान हें सर्व मोड़े || ४४ || सदा विषयो चिंतिता जीव जाला | अहंभाव अज्ञान जन्मासि आला | विवेके सदा सस्वरुपी भरावें | जिवा ऊमगी जन्म नाहीं स्वभावे || ४५ || दिसे लोचनी तें नसे कल्पकोडी | अकस्मात् आकारले काळ मोड़ी | पुढे सर्व जाईल कांही न राहे | मना संत आनंत शोधुनी पाहें || ४६ || फुटेना तुटेना चळेना ढळेना | सदा संचले मीपणे तें कळेना | तया एकरुपासी दुजें न राहे | मना संत आनंत शोधुनी पाहें || ४७ || निराकार आधार ब्रम्हादिकांचा | जया सांगता सीणली वेदवाचा || विवेकें तदाकार होऊनी राहें | मना संत आनंत शोधुनी पाहें || ४८ || जगीं पाहतां चर्मचक्षी न लक्षे | जगी पाहतां ज्ञानचक्षी न रक्षे || जगी पाहतां पाहणे जात आहे | मना संत आनंत शोधुनि पाहे || ४९ || नसे पीत न श्वेत ना शाम कांही | नसे वक्त अव्यक्त ना नीळ नाहीं || म्हणे दास विश्वासता मुक्ति लाहे | मना संत आनंत शोधुनि पाहे || १५० || खरें शोधिता शोधिता शोधिताहें | मना बोधितां बोधिता बोधिताहें || परी सर्वही सज्जनाचेनि योगे | बार निश्चयो पाविजे सानुरागे || ५१ || बहुतां परी कूसरी तत्वझाडा | परी पाहिजे अंतरी तो निवाडा || मना सार सचार तें वेगळे रे | समस्तांमध्ये एक ते आगळे रे || ५२ || नव्हे पिंडज्ञानें नव्हें तत्वज्ञानें | समाधान कांही नव्हें तानमाने | नव्हे योगयोगे नव्हे भोगत्यागे | समाधान तें सज्जनाचेनि योगे || ५३ || महावाक्य तत्वादिके पंचिकर्णे | खुणे पाविजे संतसंगे विवर्णे | द्वितियेसी संकेत जो दाविजेतो || तया सांडूनि चंद्रमा भाविजेतो || ५४ || दिसेना जनी तेंचि शोधुनि पाहे | बरें पाहतां गूज तेथेंचि आहे | करी घेऊ जातां कदा आढळेना | जनी सर्व कोंदाटल़े तें कळेना || ५५ || म्हणे जाणता तो जनीं मूर्ख पाहे | अंतर्कासी तर्की असा कोण आहे || जनी मीपणे पाहतां पाहवेना | तया दक्षिता वेगळे राहवेना || ५६ || बहू शास्त्र धुंडाळिता वाड आहे | जया निश्चयो येक़ तोही न साहे || मती भांडती शात्रबोधे विरोधे | गति खूंटती ज्ञानबोधें प्रबोधे || ५७ || श्रुति न्याय मीमांसके तर्कशास्त्रे | स्मृति वेद वेदांतवाक्ये विचित्रे | स्वये शेष मौनावला स्थिर पाहे | मना सर्व जाणीव् सांडून राहे || ५८ || जेणे मक्षिका भक्षिली जाणिवेची | तया भोजनाची रूचि प्राप्त कैची | अहंभाव ज्या मानसीचा विरेना | तया ज्ञान हे अन्न पोटीं जिरेना || ५९ || नको रे मना , वाद ह खेदकारी | नको रे मना खेद नाना विकारी || नको रे मान सिकंऊ पुधिलांसी | अहंभाव जो राहिला तूजपासी || ६० || अहंतागुणे सर्वही दु:ख होते | मुखे बोलिले ज्ञान तें व्यर्थ जाते || सुखी राहता सर्वही सुख आहे || अहंता तुझी तूचि शोधूनी पाहें || ६१ ||अहंतागुणे नीति सांडी विवेकी | अनीतिबळे श्लाघ्यता सर्व लोकी || परी अंतरी सर्वही साक्ष येते | प्रमाणांतरे बुद्धि सांडूनि गेला || ६२ || देहेबु:द्धिचा निश्चयो दृढ जाला | देहातीत तें हीत सांडीत गेला | देहेबुद्धि ते आत्मबुद्धि करावी | सदा संगती सज्जनाची धरावी || ६३ || मनें कल्पिता विषयो सोडवावा | मनें देव निर्गुण तो वोLखावा | मनें कल्पिता कल्पना ते सरावी | सदा संगती सज्जनाची धरावी || ६४ || देहादीक प्रपंच ह चिंतियेला | परी अंतरी लोभ निश्चित ठेला || हरीचिंतने मुक्तिकांता वरावी | सदा संगती सज्जनाची धरावी || ६५ || अहंकार विस्तारला य देहाचा | स्त्रियापुत्रमित्रादिकें मोह त्यांचा || बले भ्रान्ति हे जन्मचिंता हरावी | सदा संगती सज्जनाची धरावी || ६६ || बार निश्चयो शाश्वताचा करावा | म्हणे दास संदेह तो वीसरावा || घडिनें घडी सार्थकाची करावी | सदा संगती सज्जनाची धरावी || ६७ || करी वृत्ती जो संत तो संत जाणा | दुराशागुणे जो नव्हे दैन्यवाणा || उपाधी देहेबुद्धीते वाढवीते | परी सज्जना केवी बांधू शके ते || ६८ || नसे अंत आनंत संता पुसावा | अहंकार विस्तार हा नीरसावा | गुणेंवीण निर्गुण तो आठवावा | देहेबुद्धिचा आठवू नाठवावा || ६९ | देहेबुद्धि हे ज्ञानबोधे त्यजावी | विवेकें तये वस्तूची भेटी घ्यावी || तदाकार हे वृत्ती नाही स्वभावे | म्हणोनि सदा तेंचि शोधित जावें || १७० || असे सार साचार तें चोरलेंसे | येहीं लोचनीं पाहतां दृश्य भासे | निराभास निर्गुण तें आकळेना | अहंतागुणे कल्पितांही कळेना || ७१ || स्फुरे विषयी कल्पना ते अविद्या | स्फुरे ब्रम्ह रे जाण माया सुविद्या || मुळी कल्पना दो रुपें तेचि जाली | विवेके तरी सस्वरुपी मिळाली || ७२ || स्वरूपां उदेला अहंकार राहो || तेणें आच्छादिले व्योम पाहो || दिशा पाहतां ते निशा वाढताहे | विवेके विचारे विवंचूनि पाहे || ७३ | जया चक्षुनें लक्षिता लक्षवेना | भवा भक्षिता रक्षिता रक्षवेना | क्षयातीत तो आक्षयी मोक्ष देतों | दयादक्ष तो साक्षीने पक्ष घेतो || ७४ || विधि निर्मिता लिहितो सर्व भाळा | परी लिहिता कोण त्याचे कपोळी | हरू जाळितो लोक संहारकाळी | परी शेवटी शंकरा कोण जाळी || ७५ || जगीं देव जगीं द्वादशादित्य हे रुद्र आक्रा | असंख्यात संख्या करी कोण शाक्रा | जगीं देव धुंडाळीता आधाळेना || जनी मुख्य तो कोण कैसा कळेना || ७६ || तुटेना फुटेना कदा देवराणा | चळेना ढळेना कदा दैन्यवाणा || कळेना वळेना कदा लोचनासी | वसेना दिसेना जगी मीपणासी || ७७ || जया मानला देव तो पुजिताहे | परी देव शोधुनि कोणी न पाहे || जगी पाहतां देव कोट्यानुकोटी | जया मानलीं भक्ति जे तेचि मोठी || ७८ || तिन्ही लोक जेथुनी निर्माण जाले | तया देवरायासी कोणी न बोले || जगीं थोरला देव तो चोरलासे | गुरुवीण तो सर्वथाही न दीसे || ७९ || गुरु पाहतां पाहतां लक्ष कोटीं | बहुसाल मंत्रावळी शक्ति मोठी || मनीं कामना चेटके घातमाता | जनीं व्यर्थ रे तो नव्हे मुक्तिदाता || १८० || नव्हे चेटकी चालक द्रव्यभोंदू | नव्हे निंदकु मत्सरू भक्तिमंदु || नव्हे उन्मतु वेसनी संगसाधू | जनी ज्ञानिया तोचि साधू अगाधु || ८१ || नव्हे वाऊगी चाहुटी काम पोटी | क्रियेवीण वाचालता तोचि मोठी || मुखे बोलिल्यासारिखे चालताहे | मना सदगूरू तोचि शोधुनि पाहे || ८२ || जनी भक्त ज्ञानी विवेकी विरागी | कृपाळू मनस्वी क्षमावंत योगी || प्रभु दक्ष व्युत्पन्न चातुर्य जाणे | तयानेच योगे समाधान बाणे || ८३ || नव्हे तेंचि जाले नसे तेंचि आले | कलो लागले सज्जनाचेनि बोलें || अनिर्वाच्य तें वाच्य वाचे वदावें | मना संत आनंत शोधित जावें || ८४ || लपावें अती आदरें रामरूपी | भयातीत निश्चीत ये स्वस्वरूपी || कदा तो जनीं पाहतां ही दिसेना | सदा ऐक्य तो भिन्नभावे वसेना || ८५ || सदा सर्वदा गम सन्नीध आहे | मना सज्जना सत्य शोधून पाहें || अखंडित भेटीं रघुराजयोगू | मना सांडि रे मीपणाचा वियोगू || ८६ || भूते पिंड ब्रम्हांड हें ऐक्य आहे | परी सर्वही सुस्वरुपी न साहे || मना भासलें सर्व काहीं पहावे परी संग सोडुनी मुखी रहावें || ८७ || देहेमान हें ज्ञानशास्त्रे खुडावें | विदेहिपणे भक्तिमार्गेची जावें || विरक्तिबळे नींद्दय सर्वे त्यजावे | परी संग सोडुनि सुखें रहावें || ८८ || मही निर्मिली देव तो वोलखावा | जया पाहतां मोक्ष तत्काळ जीवा || तया निर्गुणालागि गुणी पहावें | परी संग सोडुनि सुखें रहावें || ८९ || नव्हे कार्यकर्ता नव्हे सुष्टिभर्ता | परेहून पर्ता न लिपे विवर्ता || तया निर्विकल्पासी कल्पीत जावें | परी संग सोडुनि सुखें रहावें || १९० || देहेबुद्धीचा निश्चयो ज्या ढळेना | तया ज्ञान कल्पांतकाळी कळेना || परब्रम्ह तें मीपणे आकळेना | मनी शून्य अज्ञान हेन मावळेना || ९१ || मना ना कळे ना ढळे रूप ज्याचें | दूजेवीण तें ध्यान सर्वोत्तमाचे | तया खूण ते हीण दृष्टांत पाहे | तेथे संग नि:संग दोनी न साहे || ९२ || नव्हे जाणता नेणता देवराणा | न ये वर्णिता वेदशास्त्रा पूराणा | नव्हे दृश्य अदृश्य साक्षी तयाचा | श्रुती नेणती नेणती अंत:त्याचा || ९३ || वसे हृदयी देव तो कोण कैसा | पुसे आदरे साधकू प्रश्न ऐसा | देहे टाकिता देव कोठे रहातो | परी मागुता ठाव कोठे पहातो || ९४ || वसे हृदयीं देव तो जाण ऐसा | नभाचेपरी व्यपाकू जाण तैसा | सदा संचला येत ना जात कांही | तयावीण कोठे रिता ठाव नाहीं ||| ९५ || नभी वावरे जो अणुरेणू कांही | रिता ठाव या राघवेवीण नाही | तया पाहता पाहता तेंचि जाले | तेथें लक्ष आलक्ष सर्वे बुडाले || ९६ || नभासारिखे रूप या राघवाचें | मानी चिंतिता मूळ तुटे भवाचें || तया पाहतां देह बुद्धी उरेना | सदा सर्वदा आर्त पोटी उरेना || ९७ || नभें व्यापिले सर्व स्रुष्टिस आहे | रचूनायका ऊपमा ते न साहे || दूजेवीण जो तोचि तो हा स्वभावें | तया व्यपाकू व्यर्थ कैसे म्हणावे || ९८ || अती जीर्ण विस्तीर्ण तें रूप आहे | तेथें तर्कसंपर्क तोहीं न साहे | अती गूढ़ तें दृश्य तत्काळ सोपें | दूजेवीण जे खूण स्वामीप्रतापें || ९९ || कळे आकळे रूप ते ज्ञान होतां | तेथें आटली सर्वसाक्षी अवस्था || मना उन्मनी शब्द कुंठीत राहे || तो गे तोचि तो राम सर्वत्र पाहे || २०० || कदा ओळखीमाजी दुजें दिसेना || मनी मानसी द्वैत कांही वसेना | बहुतां दिसां आपुली भेटि जाली | विदेहीपणें सर्व काया निवाली || १ || मना गूज रे तूज हें प्राप्त जालें | परी अंपरीं पाहिजे यत्न केले | सदा श्रवणे पालिजे निश्चयासी | धरी सज्जनसंगती धन्य होसी || २ || मना सर्वही संग सोडुनि द्यावा | अती आदरें सज्जनाचा धरावा | जयाचेनि संगे महां दुख भंगे | जनी साधनेंविण सन्मार्ग लागे || ३ || मना संग हा सर्व संगास तोड़ी | मना संग ह मोक्ष तत्काळ जोडी | मना संग हा साधका शीघ्र सोडी | मना संग हा द्वेत नि:शेष मोड़ी || ४ || मनाची शतें ऐकता दोष जाती | मतिमंद ते साधना योग्य होती || चढ़े ज्ञान वैराग्य सामर्थे आंगी | म्हणे दास विश्वासता मुक्ति भोगी || २०५ ||